नन्हे सपने ।
एक छोटे से गाव में एक मासूम सा बालक रहता था उसका नाम विजय था, वह बहुत गरीब था जिसके कारण वह गावं के ही सरकारी स्कूल में पढता था, उसके पिता उसे बचपन में ही छोड़ के चले गए थे।
विजय की माँ उसे पढ़ाने के लिए दिन रात मेहनत करती, उसे खूब प्यार करती, उसे हमेशा यही सताता कि उसके बेटे को उसके पिता के जाने का अहसास नहीं होना चाहिए ।
विजय सभी बच्चों की तरह स्कूल जाने के लिए रोज घर से निकलता, स्कूल के रास्ते में एक मिठाई की दुकान थी वह वहीं देख कर कुछ देर के लिए ठहर जाता, वह दुकान की मिठाइयों को गौर से देखने लगता। विजर रोज स्कूल आते-जाते दुकान पर सजी मिठाइयों निहारता रहता ।
सड़क पर दुकान के सामने खड़े होकर दुकान में सजी मिठाईयों को गौर से देखता, ‘न जाने उसके मन में क्या चलता रहता न जाने वह क्या छठा था ।
शायद दुकान दार को अब तक यह अहसास हो गया था कि उसे कुछ न कुछ चाहिए लेकिन वह कह नहीं पा रहा है, दुकानदार ने विजय से पूछ ही लिए “क्या तुम्हे मिठाई खाना है”
विजय ने कहा ‘हाँ’ लेकिन मेरे पास ‘पैसे’ नहीं हैं ।
दुकानदार ने मुस्कुराते हुए उसे खाने के गुलाब जामुन देने लगा।
विजय की आख्नों में आसूँ आ गए, ‘जैसे कोई सपना आज उसका पूरा हो रहा हो ।
विजय ने गुलाब जामुन खाने के बाद दुकानदार को धन्यवाद किया। और कहने लगा “अंकल अगर आप मुझे यह मिठाई खाने को नहीं देते तो “मिठाई का सपना मेरा बस सपना ही रह जाता ।
मासूम विजय की बातों को सुनकर दुकानदार की आँख भर आई, उसे लगा जैसे उसने कई जन्मो का पून्य कमा लिया हो ।
आज विजय का मानो कई जन्मो का सपना एक साथ पूरा हो गया हो, वह मुस्कुराते, इतराते, और सड़कों जैसे उछल-कूद करते हुए स्कूल की ओर चल पड़ा ।
अब वह घर से स्कूल के लिए तो निकलता तो है लेकिन पहले जैसे दुकान पर सजी मिठाईयों निहारता नहीं है ।
गाँव की मिट्टी ।
गाँव एक बुजुर्ग जिसे हम ‘दादा जी’ कहा करते थे उनका एक ही बेटा था जो अमेरिका में अच्छी कम्पन्नी में इंजीनियर था ।
अमेरिका जाने के कुछ दिनों बाद तक हर सप्ताह उनका बेटा उनकी खबर लिया करता रहा, जैसे जैसे दिन गुजरते गए उनके बेटे के फोन आने का सिलसिला भी थमता चला गया ।
दादा जी की भी उम्र हो चली थी, उनकी शरीर में अब वैसी ताकत नहीं बची थी जैसे पहले कभी हुआ करती थी ।
दादा जी आज भी अपने इंजीनियर बेटे के फोन आने का इन्तजार कर रहे थे, लेकिन मानो उनके बेटे ने उन्हें अब भुला दिया हो, अब वह बहुत कम ही फोन करता और बूढ़े बाप का हाल जानने की कोशिश करता ।
बेटे की इस बेरुखी ने मानों दादाजी को अन्दर से तोड़ कर रख दिया हो ।
पैसे और सोहरत की लालच में बूढ़े बाप को भी अनदेखा कर दिया था, वह यह भूल गया था कि उसके माँ बाप ने उसे पढ़ाने के लिए दिन रात कितनी मेहनत की थी ।
दादा जी अब और बूढ़े हो चुके थे, उनको कई प्रकार की बीमारियों ने घेर लिया था, जिसमे सबसे बड़ी बिमारी थी उनके बेटे की उनसे इस तरह दूरी बना लेना ।
एक दिन दादा जी देर तक घर से बाहर नहीं आये तो मैंने दरवाजा खोलकर उनके घर के अन्दर जा कर देखा तो मानो मेरे पैरों के निचे से जमीन खिसक गयी थी ।
एक टूटी सी चारपाई पर अचेत अवस्था में दादा जी का सर जमीन की और लटक रहा था। पास एक कागज़ का टुकड़ा पड़ा था जिसपर लिखा था “बेटा तू जहाँ भी रहे खुश रहे हमारा क्या हमने तो अपना जीवन जी लिया, अपनी जिम्मेदारी पूरी करली “ तू जब कभी अपने गावं वापस आएगा गावं तो होगा पर हम नहीं होंगे ‘।
रिश्तों की ख़ामोशी एक दादा जी जान ले चुकी थी ।